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चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक करार देकर सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को उनका हक दिया है The Supreme Court has given voters their rights by declaring electoral bonds unconstitutional. helobaba.com

सुप्रीम कोर्ट ने पूरी योजना को रद्द करते हुए कानून में सभी संशोधनों को भी रद्द कर दिया है, जिसे लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29सी (1), कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 182 (3), आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13ए (बी) और भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1943 की धारा 31 (3) के तहत लाया गया था. इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) का उल्लंघन माना गया है.

उदाहरण के लिए, खातों के हिसाब-किताब की आवश्यकता खत्म कर दी गई थी; व्यक्तिगत दाताओं के नाम का खुलासा नहीं हो सकता था, राजनीतिक फंडिंग की ऊपरी सीमा हटा दी गई; और SBI को धारक को देय मांग वचन पत्र (बॉन्ड) जारी करने की अनुमति दी गई थी, जो RBI अधिनियम, 1934 के तहत भारतीय रिजर्व बैंक का विशेष एकाधिकार है. ये संशोधन संविधान के अनुच्छेद 110 के तहत वित्त विधेयक, 2017 के माध्यम से अधिनियमित किए गए थे.

अब सुप्रीम कोर्ट की बदौलत, भारतीय वोटरों को वह मिल गया है जो उनके हिस्से का बकाया था. अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत सूचना का अधिकार अब सर्वोच्च हो गया है. यह अधिकार निजता के अधिकार से आगे आ गया है. यानी, चुनाव के लिए किसे चंदा देना है, इसके बारे में डोनर की गोपनीयता (यह अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत आता है) से बढ़कर किसी वोटर की सूचना पाने का अधिकार है.

भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने अपने प्रमुख फैसले में (माननीय न्यायमूर्ति बी आर गवई, माननीय न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और माननीय न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की ओर से भी) निम्नलिखित शब्दों में चिंता व्यक्त की:

इसलिए, कोर्ट ने अनुच्छेद 19(1)(ए) और अनुच्छेद 21 के बीच स्पष्ट संघर्ष का समाधान कर दिया है. वोटर को मिलने वाला सूचना का अधिकार चंदा देने वाले के अपनी पहचान का खुलासा न करने के अधिकार से बढ़कर है.

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने रिकॉर्ड पर यहां तक कहा:

इस फैसले ने भारत की चुनावी राजनीति को ऑक्सीजन दिया है. इलेक्टोरल बॉन्ड योजना में गुमनाम रहकर असीमित चंदा देना, वो भी बिना किसी जवाबदेही या जांच के विशेष रूप से हानिकारक था.

लेकिन आज के फैसले को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट की महिमा आज अपनी पूरी भव्यता के साथ चमक रही है.

(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील और भारत के पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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