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भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ क्यों बने ही रहने चाहिए? helobaba.com

देश की यह लोकप्रिय धारणा राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए एक खिलौना बन गई है. नेता ‘मूल’ या ‘संशोधित’ प्रस्तावना को इस आधार पर आगे बढ़ाते हैं कि वे खुद को राजनीतिक स्पेक्ट्रम में कहां पाते हैं.

संविधान की प्रस्तावना से इन दो शब्दों को हटाने के एक और गलत प्रयास में, अनुभवी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.

सुप्रीम कोर्ट के सामने इन शब्दों को हटाने की मांग करने वाली यह पहली याचिका नहीं है, और यकीनन यह आखिरी भी नहीं होगी. वजह है कि कानूनी पृष्ठभूमि वाले राजनीतिक अवसरवादी इस बहती गंगा में हाथ धोने के लिए भागते हैं. आपको लग सकता है कि इस याचिका को पहले दिन ही खारिज कर दिया जाना चाहिए था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्वीकार करके इस सरगर्मी को कुछ और दिन के लिए हवा दे दी है.

इस मामले में सुनवाई जारी है. ऐसे में इसके दो प्रभाव हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं. पहला, चूंकि सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई को यूट्यूब पर लाइव स्ट्रीम किया जाता है और इसे रीयल-टाइम में वेबसाइटों और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर ट्रांसक्रिप्ट किया जाता है, इसलिए यह जजों द्वारा बोले गए किसी भी बात को ‘जनमत’ के लिए चारा बनने की अनुमति देता है.

दूसरा, कंटेट क्रिएशन की तेजी में बिना संदर्भ के कोर्ट में होती जिरह की रिपोर्टिंग का ‘प्रस्तावना’ की वैधता पर बुरा असर पड़ता है. तो, आइए उस मुख्य विवाद को जानें जिसने कमोबेश सुप्रीम कोर्ट का ध्यान आकर्षित किया है.

सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर सवाल किया है कि आखिर जब संविधान की प्रस्तावना में संशोधन किया गया तब भी उसमें संविधान अधिनियमित और आत्मार्पित (स्वीकार) किए जाने की तारीख को ओरिजिनल (26 नवंबर 1949) ही बनाया रखा गया.

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